Teaching and researching religions, languages, literatures, films, and ecology of India: http://philosophy.unt.edu/people/faculty/pankaj-jain

Sunday, July 15, 2007

विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयार्क

शनिवार जुलाई १४ को मॆं न्यूयार्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में गया था, यह मेरा पहला अनुभव था। १००० से कुछ ज़्यादा लोग थे व सभी का जोश दर्शनीय था। संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी भी अन्य भाषाओं की तरह काम में ली जाए, यह एक मुख्य बिन्दु था। कम्प्युटर व इन्टर्नेट पर हिन्दी का प्रयोग अधिक हो, यह भी एक चर्चा का विषय था।

मिट्टी - सोना


मेरे वतन की स्मृति, मेरे वतन की मिट्टी है,
इस देश की पहचान, इस देश का सोना है.

वो मिट्टी बारिश की सौन्धी मधुर महक है,
यह सोना तो बस बाहरी चमक दमक है.

वो मिट्टी अमर ममता का खज़ाना है,
यह सोना तो आज पाना और कल खोना है.

उस मिट्टी के गागर मॆ सदियो का ग्यान सागर है,
यह सोना तो मात्र भौतिक-सुख-रत्नाकर है.

उस मिट्टी के कण-कण से हमारा हर जन्म का रिश्ता है,
इस धरती पर तो हर रिश्ता सोने से सस्ता है.

वो भूमि हर भाषा, हर धर्म, हर विद्या की मूल भूमि है,
यह भूमि भी हमरी मातृ-भूमि की खोज की निशानी है.

सफ़र

सफ़र


मेरे कदम तो ज़माने की चाल में नही.
क्या इन्हे हमकदम मिलेगा?

मेरे जज़्बात तो दुनिया के मोहताज़ नही
क्या इन्हे हमजज़्बा मिलेगा?

मेरे ख्वाब तो वक्त की बाज़ुओं में कैद नही
क्या इन्हे हमपरवाज़ मिलेगा?

मेरे अल्फ़ाज़ को ज़ुबां की दरकार नही
क्या इन्हे हमज़ुबां मिलेगा?

मेरा साया तो रोशनी में गिरफ़्तार नही
क्या इसे हमसाया मिलेगा?



अकेली राह है, तन्हा सफ़र है,
गुज़रे मकामों की तलाश बरकरार है.

एक नदी कभी निकली थी वादियों से,
अपने उद्गम में समाने को बेकरार है.

सुना था खिज़ां के फूल पे बहार नही आती,
यहां सुने सेहरा में गुलशन का इन्तज़ार है.

न कोई हमसफ़र है, नही कोई रहनुमा,
बस चल पडा हूं, अपने कदमों पे इख्तियार है.

उभरती हुई कश्ती, भडका हुआ शोला

एक कश्ती

एक कागज़ की कश्ती है, धीरज की पतवार है
आशाओं के मल्हार है, साथी जिसका मझधार है

हवाओं को है काटना, पानियों को है चीरना
बाज़ुओं की ताकत से, तकदीरों को है बदलना

एक शोला

कोई झिलमिलाता जुगनु नही, नही कोई टूटा हुआ तारा
ये तो है वो शोला, जो किसी तूफ़ां से ना हारा

माना की वक्त की गर्द तो, आज इस पर छाई है
फिर एक सुबह होगी, आशा ये सन्देसा लाई है.

उभरती हुई कश्ती, भडका हुआ शोला

नही है इसे किनारों का शौक, कि वो तो है मृग-मरीचिका
नही है इसे अंधेरों का डर, वो भी तो है बस वहम मन का

ये नौका फिर बीच भंवर से उभरकर नई धारा बनेगी
ये चिन्गारी फिर घने अन्धेरों से निकलकर नई ज्वाला बनेगी

फ़कीरी

फ़कीरी

जाने क्या ढूंढता है दिल इस फ़कीरी में
जाने किसकी तलाश है मुझे बेकरारी में

सितारो से परे कुछ तो है जो पाना है
जो नही है हासिल दुनिया की किसी अमीरी में

वो हो गर शामिल मेरे खयालात में
तो हो तासीर मेरी बन्दिशो-शायरी में

वो गर दे संगत मेरे जज़्बात में
तो हो असर मेरे इश्को-वफ़ादारी में

कोशिश है आफ़ताब को पाने की हर कदम पर
माना की ज़र्रा हूं उसकी बराबरी में

रीढ सदा सीधी रखना

भले हठीली हकीकते हो हरदम
ख्वाबो को खिलाते रहना

चाहे सख्त सचाइयां सताये
सपनों को सजाते रहना

भले तमाम तूफ़ान टूटे
उम्मीदों की नाव बनाना

चाहे पथरीले पर्वत हो पथ मे
नई मन्ज़िलों को पाते जाना

भले मुश्किले मन्डराये कितनी
सदा मुस्कानें महकाना

चाहे कांटों की चुभन हो पर
कुसुम क्यारिया लगाना

न कभी झुकना, न ही रुकना
रीढ सदा सीधी रखना

न डरना चिन्ताऒ से कभी
सीना तान सर ऊंचा रखना

Dvaita Advaita

द्वैताद्वैत

जब तक मां से हम जुदा नही
उसकी ममताको हमने छुआ नही

जब तक मातृ-भूमि से हम दूर नही
उसकी मिट्टी की महक से हम मगरूर नही

अद्वैत भले हो अटल अनन्त सत्य
द्वैत है लीलाधारी की क्रीडा का कृत्य

ब्रह्म हो या मां या हो मातृ-भूमि
अद्वैत नही, द्वैत ही जगाती प्रेम अनुभूति

Agni

अग्नि

अग्निदेश से आ रहा मै
अग्निपथ पर जा रहा मै

अग्निवीरो की सन्तान मै
अग्निपत्रो का फ़रमान मै

अग्निकणो की इज़ाद ये इरादे
अग्नि-दग्ध फ़ौलाद ये वादे

अग्निसम उर्ध्वगामी है जीवनपथ
अग्नि तेजपुन्ज मन, तन श्वेद लथपथ

NRI: Saanskritik Doot

हम सब हैं भारत के सांस्कृतिक दूत़
हमारी मातृभूमि के हम सच्चे सपूत.

हमारा है यही एक कतर्व्य यही उत्तरदायित्व
पुण्यभूमि के सन्देश से लाभान्वित हो सारा विश्व.

सदियों के पूर्वजों ऋषियों की हम है आशा़
अगली सभी पीढीयोंकी हम हैं अभिलाषा .

सदियों के पावन भण्डार के हम उत्तराधिकारी़
वेद- उपिनषद- गीता रुपी अमृत के हम पुजारी.

संस्कृति के जीर्णोधार का हमें मिले आह्वान
भारतीयता के पुनरुत्थानका हम मांगें वरदान.

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पंकज जॆन

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