Teaching and researching religions, languages, literatures, films, and ecology of India: http://philosophy.unt.edu/people/faculty/pankaj-jain

Sunday, July 15, 2007

उभरती हुई कश्ती, भडका हुआ शोला

एक कश्ती

एक कागज़ की कश्ती है, धीरज की पतवार है
आशाओं के मल्हार है, साथी जिसका मझधार है

हवाओं को है काटना, पानियों को है चीरना
बाज़ुओं की ताकत से, तकदीरों को है बदलना

एक शोला

कोई झिलमिलाता जुगनु नही, नही कोई टूटा हुआ तारा
ये तो है वो शोला, जो किसी तूफ़ां से ना हारा

माना की वक्त की गर्द तो, आज इस पर छाई है
फिर एक सुबह होगी, आशा ये सन्देसा लाई है.

उभरती हुई कश्ती, भडका हुआ शोला

नही है इसे किनारों का शौक, कि वो तो है मृग-मरीचिका
नही है इसे अंधेरों का डर, वो भी तो है बस वहम मन का

ये नौका फिर बीच भंवर से उभरकर नई धारा बनेगी
ये चिन्गारी फिर घने अन्धेरों से निकलकर नई ज्वाला बनेगी

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पंकज जॆन

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