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Sunday, July 15, 2007

सफ़र

सफ़र


मेरे कदम तो ज़माने की चाल में नही.
क्या इन्हे हमकदम मिलेगा?

मेरे जज़्बात तो दुनिया के मोहताज़ नही
क्या इन्हे हमजज़्बा मिलेगा?

मेरे ख्वाब तो वक्त की बाज़ुओं में कैद नही
क्या इन्हे हमपरवाज़ मिलेगा?

मेरे अल्फ़ाज़ को ज़ुबां की दरकार नही
क्या इन्हे हमज़ुबां मिलेगा?

मेरा साया तो रोशनी में गिरफ़्तार नही
क्या इसे हमसाया मिलेगा?



अकेली राह है, तन्हा सफ़र है,
गुज़रे मकामों की तलाश बरकरार है.

एक नदी कभी निकली थी वादियों से,
अपने उद्गम में समाने को बेकरार है.

सुना था खिज़ां के फूल पे बहार नही आती,
यहां सुने सेहरा में गुलशन का इन्तज़ार है.

न कोई हमसफ़र है, नही कोई रहनुमा,
बस चल पडा हूं, अपने कदमों पे इख्तियार है.

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पंकज जॆन

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